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________________ होकर रोगमुक्त हुए। जिसका ऐसा अलौकिक प्रभाव है, हम वैसी श्रीजिनेश्वरदेव की मूत्ति-प्रतिमा का पूजन क्यों न करें ! यह तो मन, वचन और काया से सर्वदा भक्तिपूर्वक वन्दनीय एवं पूजनीय है ।। ११० ।। [ १११ ] 0 मूलश्लोकःविनिर्मुक्ता रोगैर्गरुडभयतो नागकुलवत् , विरेजुः सदेहाः ग्रहणरहितो भानुविधुवत् । महत्त्वं पूजायाः स्नपनपयसोरप्यभिमतं , इदं सत्यं किं नो कथयसिरिवाले सुचरिते ॥ १११ ॥ + संस्कृतभावार्थः-परमपावन - शान्तिस्नात्रशुद्धोदकभीताः रोगाः, गरुडाद् भीताः सर्पा इव पलायिताः । रोगनिर्मुक्ताः जनाः ग्रहणमुक्त भास्करमिव विरेजुः । एवं तावत् प्रभुपूजनमहत्त्वं विश्वविदितम् तर्हि कथङ्कारं विद्विषन्ति भवन्तो मूत्तिपूजा - विरोधिनः ? किमेतत् 'श्रीपालचरितं' पारमाथिकं न ? । * हिन्दी अनुवाद-परमपवित्र श्रीशान्तिनाथ भगवान के समवसरण में पाराधित पूजित उस श्रीशान्तिस्नात्रमहापूजन के प्रक्षाल-जल से रोग, ठीक उसी प्रकार भया
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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