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________________ + संस्कृतभावार्थः-चमत्कारकरं तद् वृत्तान्तञ्च एतदेव यत् तस्याः पत्युः शरीरं यच्च बहुविधं गलितकुष्ठरोगेण वणितं पूतियुतमासीत् । तदेवं भास्वरसौवर्णकान्तिमधिजगे । तत् सौख्यं मनोवचोऽतिगं स्वरूपं प्राप्नोत् । इति वृत्तान्तचमत्कृता जैनाः, नेतराश्च श्रीजैनधर्मस्य जयारावमकुर्वन् । तेन जयारावेण च सर्वा अपि दिशाः गुञ्जिताः कूजिताः पूजिताः इति सजाताः । अहो ! सत्यमेतत् जैनधर्मः कल्पवृक्ष इति मनोभिलषितं सपदि पूजयति । अतएव सर्वोत्कृष्टत्वेन वर्तते । * हिन्दी अनुवाद-चमत्कार यह हुआ कि जैसे-जैसे मयरणासुन्दरी ने स्नात्रजल अपने पति श्रीपाल के गलित दुर्गन्धियुक्त कुष्ठ-रोगाकीर्ण शरीरावयवों पर लगाया वैसे-वैसे ही वह कुष्ठ-प्रकोप शान्त हो गया। फलस्वरूप उसका शरीर भी सुवर्ण कान्ति के समान देदीप्यमान होने लगा। ऐसे चमत्कारपूर्ण वृत्तान्त को देखकर जैन एवं जैनेतर भी श्रीजैनधर्म की जय बोलने लगे। इस जयध्वनि से ऐसा प्रतीत होता था मानों दिशायें बहरी हो जायेंगी। वस्तुतः अहिंसा-संयम-तपरूप जैनधर्म कल्पवृक्ष के समान सभी मनोरथों को पूर्ण करता है। अतएव सर्वोत्कृष्ट है ।। १०६ ॥ -०-१३७ --
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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