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निबद्ध सुन्दर एवं सरस रचना है । स्रग्धरा छन्द में रचना का सौन्दर्य हृदय एवं कला दोनों की दृष्टि से उत्तम है ।
इसी क्रम में मूत्तिपूजा को लक्ष्य बनाकर शिखरिणी आदि छन्दों में निबद्ध विद्वद्वर्य प्राचार्य प्रवर श्रीमद्विजय सुशील सूरीश्वरजी म. की यह रम्य रचना 'जिनमूत्तिपूजासार्द्धशतकम्' पूर्णतः मौलिक एवं प्रामाणिक रचना है । पूजा के सन्दर्भ में विशद् प्रकाश डालते हुए मूर्तिपूजा की प्राचीनता एवं प्रागम-शास्त्रों के सिद्धान्तों को प्रामाणिकता मुखरित करना, कवि का उद्देश्य रहा है । अतः काव्य पक्ष को पूर्ण गति नहीं मिल पाई है, किन्तु फिर भी यथावत् रूप में काव्यात्मक शैली की छटा, अलंकार, रस, भावों की संसृष्टि सर्वत्र छिटकती-सी दिग्गोचर होती है।
'श्रीजिनमूर्तिपूजासार्द्धशतकम्' में प्रस्तुत कुछ काव्यापक्षीय तथा सिद्धान्तपक्षीय उदाहरण इस प्रकार हैं--
इयं जैनी मूत्तिहृदयकमले यस्य लसिता न दुःखं दारिद्रयं दलितमखिलं मोहनिकरम् । विधातुं दुःशक्यं भवति सुलभं तत् प्रतिपदम्, अतो ध्येया गेया सततमभिपेयाऽस्तियुगलैः ॥