SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्याद्वादबोधिनी-३२ (४) स नित्यः-ईश्वरो नित्य इति वैशेषिकाः स्वीकुर्वन्ति । जैनाः कथयन्ति, भवद्भिः ईश्वरः सततं क्रियाशीलोऽक्रियाशोलो वा स्वीकृतः ? तस्य सतत क्रियाशीलत्वे किमपि कार्य न समाप्येत । अक्रियाशीलत्वे जगतो निर्माता नैश्वरः स्यादिति । - भाषानुवाद - * श्लोकार्थ-सम्प्रति वैशेषिकों द्वारा मान्य ईश्वर के जगत्कर्तृत्वपक्ष में बताते हुए कहा है कि-हे नाथ ! जो अप्रामाणिक दार्शनिक 'कोई जगत् का कर्ता है-वह एक है, सर्वव्यापी (सर्वज्ञ) है, स्वतन्त्र है और नित्य है' इत्यादि दुराग्रहपूर्ण सिद्धान्त स्वीकार करते हैं, उनके पाप अनुशास्ता नहीं हो सकते । 9 भावार्थ-अन्य दार्शनिक (वैशेषिक) इन्द्रियज्ञानातीत (प्रत्यक्षप्रमाण से रहित) ईश्वर को जगत् का कर्ता मानते हैं। अपनी मान्यता में वे कार्य से कारण का अनुमान करते हैं। जगत् कार्य है अतः इसका कोई कर्ता अवश्य है, क्योंकि प्रत्येक कार्य कर्ता के द्वारा समुद्भावित होता है-यह व्याप्तिज्ञान प्रतिष्ठित है। जैसे-घड़े का कर्ता कुम्हार । हम विशाल जगत् के कर्ता नहीं हो सकते । परमाणु, हमारी दृष्टि के विषय नहीं
SR No.002335
Book TitleSyadwad Bodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamvijay Gani
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy