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स्याद्वादबोधिनी-१६४
अर्थ में द्विगुसमास हुआ है। श्रीजैनागमशास्त्रों में निकाय शब्द का भी प्रयोग है-'षड्जीवनिकाय' । व्युत्पत्ति का निदर्शन 'स्याद्वाद-बोधिनी' संस्कृत व्याख्या में स्फुट है।
श्रीजैनसिद्धान्त में द्वीपों एवं समुद्रों के असंख्यात होने के साथ-साथ अनन्तानन्त जीव भी उन असंख्य द्वीपों एवं समुद्रों में निवास करते हैं। वहीं सबसे कम त्रसकाय जीव, उनसे अधिक अग्निकाय, अग्निकाय से अधिक पृथिवीकाय, उनसे अधिक अप् (जल) काय, उनसे अधिक वायुकाय तथा वायुकाय से अधिक अनन्तगुने वनस्पतिकाय जीव हैं। वनस्पतिकाय जीव व्यावहारिक एवं अव्यावहारिक के भेद से दो प्रकार के होते हैं ।
जो जीव निगोद से निकलकर पृथिवीकाय आदि अवस्था को प्राप्त करके फिर से निगोद अवस्था को प्राप्त करते हैं वे जीव व्यावहारिक हैं तथा जो जीव अनादिकाल से निगोद अवस्था में ही पड़े हैं वे अव्यावहारिक कहलाते हैं। श्रोजैनसिद्धान्त के अनुसार असंख्यात गोल हैं, जिनके सन्दर्भ में कहा है__'गोल असंख्यात होते हैं, एक गोल में असंख्यात निगोद रहते हैं और एक निगोद में अनन्त जीव रहते हैं ।