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स्याद्वादबोधिनी-१६२
ने अमुक काल के पश्चात् मुक्त जीव (प्रात्मा) पुनः संसार में जन्म लेता है, ऐसा स्वीकार किया है। स्वामी दयानन्द तो ऋग्वेद तथा मुण्डकोपनिषद् का उद्धरण भी प्रामाणिकता के लिए प्रस्तुत करते हैं-'वे मुक्त जीव महाकल्प कालपर्यन्त मोक्ष सुख का अनुभव कर के पुनः संसार में जन्म ग्रहण करते हैं ।' यह बात उन्होंने 'सत्यार्थ प्रकाश में कही है।
श्रीतत्त्वार्थाधिगम भाष्य में स्पष्ट रूप से कहा है किमुक्तात्मा संसार में जन्म ग्रहण नहीं करते हैं-'जिस प्रकार बीज के जल जाने पर बीज से अंकुर पैदा नहीं होते, ठीक उसी प्रकार कर्मबीज के नष्ट होने पर संसार रूपी अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता।' तात्पर्य यह है कि-जिस प्रकार पूर्ण रूप से बीज के जल जाने पर अत्यन्त अनुकूल (जलसिंचन-पोषक तत्त्व) साधनों के द्वारा प्रयास किये जाने पर भी अंकुर नहीं फूटता, दग्धबीज अंकुरित नहीं होता है, उसी प्रकार यह संसार कर्ममूलक है। जब तक कार्य का सम्बन्ध बना रहता है, तब तक संसार की स्थिति रहती है। जन्म-मरण का चक्र अबाधगति से चलता रहता है, किन्तु सर्व प्रकार से तत्त्वज्ञान के द्वारा कर्मबन्धन के सर्वथा क्षीण होने पर पुनः उस मुक्तात्मा का संसार में