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________________ स्याद्वादबोधिनी-१७३ the कलिकालसर्वज्ञ प्राचार्यप्रवर श्री हेमचन्द्रसूरीश्वर जी महाराज इन एकान्तवादियों की विसंगति को ध्यान में रखते हुए ही श्लोक के उत्तरार्द्ध में कहते हैं कि आप लोगों ने दुर्नय की वासना से वासित तलवार से सारे संसार की समीचीन व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया है । ___ वस्तुतः 'स्याद्वाद' अपेक्षावाद ही समन्वयसूत्र है। संसार की सुव्यवस्थिति इसी से सम्भव है। दुराग्रह, कुतर्क से व्यवस्था बिगड़ती है। अतः सार्वभौम समन्वयात्मक सिद्धान्त स्याद्वाद स्वीकार करना श्रेयस्कर है ॥ २७ ॥ [ २८ ] सम्प्रति 'प्रमाणनयैरधिगमः' इति जिनवचनानुसारिवाक्यसार्थक्यं स्वीकुर्वन्, पूज्याचार्यश्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरः परान् क्षिपन् भगवतो श्रीजिनेश्वरदेवस्य वचनातिशयं स्तौतिॐ मूलश्लोकःसदेव सत् स्यात् सदिति त्रिधार्थः , __ मीयेत दुर्नीति-नय-प्रमाणः । यथार्थदर्शी तु नय-प्रमाण- , पथेन दुर्नीति-पथं त्वमास्थः ॥ २८ ॥
SR No.002335
Book TitleSyadwad Bodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamvijay Gani
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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