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तीन सौ छात्रों ने भी उनके साथ में ही दीक्षित होने की तैयारी की ।
छिन्न सन्देह - संशय वाले ऐसे दसवें श्रीमेतार्य विप्र अपने तीन सौ छात्रों के साथ प्रभु के पास हुए । दीक्षा पाने के साथ ही उन्होंने प्रदक्षिणा पूर्वक 'भगवन् ! किं तत्त्वम् ?' बार पूछा । भगवन्त ने भी क्रमश: " उपन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा " अर्थात् - 'सर्व पदार्थ वर्त्तमान पर्याय रूप में उत्पन्न होते हैं, पूर्व के पर्याय रूप से नष्ट होते हैं तथा मूल द्रव्य रूप में ध्रुव - नित्य रहते हैं ।' ऐसा उपदेश दिया । इस तरह सर्वज्ञ प्रभु के मुँह से 'त्रिपदी ' सुनकर गणधर श्रीमेतार्य ने 'श्रीद्वादशाङ्गी' की अद्भुत एवं अतिसुन्दर रचना की ।
प्रव्रजित - दीक्षित
भगवान को तीन
इस प्रकार तीन
॥ इति श्रीगरणधरवादे दसवें गणधर श्रीमेतार्य का संक्षिप्त वर्णन ||
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