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________________ से, सूक्ष्म होने से, समीप होने से, मनस्थिरता, मतिभेदता, इन्द्रिय संवेदनहीनता, आवरणता, पराभवता, विस्मयता, अन्धता, व्यद्ग्राह्यता, मिथ्यात्व, वृद्धत्व, सन्निपातादि अनेक कारणों से वस्तु-सत्ता होने पर भी अदृश्यता रहती है। उसी प्रकार छद्मस्थ जीव को शरीर से अपना प्रात्मा अलग होने पर भी दिखता नहीं है। प्रात्मा जैसे शरीर से पृथक् दिखता है, उसे सर्वज्ञ केवलज्ञानी देख सकते हैं, जबकि अज्ञान युक्त जीव इसे भ्रम-जाल ही मानता है । अनादिकाल से जड़ और चेतन दूध तथा घी के समान समवायित है और दूध को देखकर घी का अनुमान कर लेते हैं; उसी प्रकार देह-शरीर की चैतन्यता देखकर प्रात्मा का अनुमान भी कर लेते हैं। जीवित अवस्था में शरीर सड़ता नहीं, वही शरीर मृतावस्था में दुर्गन्ध युक्त हो जाता है। इससे आत्मा की भिन्नता सिद्ध होती है। इस तरह सर्वज्ञ विभु श्रीमहावीरस्वामी के मुंह से "विज्ञानघन एव०" वेद की इस श्रुति का श्रीइन्द्रभूति की माफिक मेरे द्वारा प्राज तक किया हुआ अर्थ प्रयुक्त-असत्य था, ऐसा जानकर और उनका सच्चा अर्थ पाकर, तथा 'प्रात्मा शरीर से पृथग्-भिन्न है' प्रभु के ऐसे युक्तियुक्त सुवचन सुनकर श्रीवायुभूति विप्र का 'शरीर ही आत्मा है
SR No.002334
Book TitleGandharwad Kavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram
Publication Year1987
Total Pages442
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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