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(१०) जैसे सर्प स्वयं ही जीवित अवस्था में संकुचित और विकसित हो सकता है, न कि मृतावस्था में। इससे मानना ही पड़ेगा कि वहाँ पर भी अन्दर रही हुई आत्मा ही काम कर रही है। यह काम आत्मा के निकल जाने पर मृतावस्था में नहीं होता ।
(११) अहिंसा, सत्य, संयमादि शुभ भाव, पाकुलताव्याकुलतादि अशुभ भाव, मन-वचन-काया के योग, ज्ञानदर्शन के उपयोग, पुरुषार्थ इत्यादि; ये सब चेतन आत्मा के धर्म हैं और उसके कार्य हैं ।
(१२) शरीर की प्रत्येक प्रवृत्ति का नियामकनिरोधक कौन ? तो कहना पड़ेगा कि आत्मा। जैसे
आँख को बन्द करना, छींक को रोकना, चलते-चलते बीच में पाँवों का रुकना, लघुशंका (मूत्रशंका) को भी रोकना, क्रोधादि को रोकना और क्षमादिक को धारण करना, इत्यादि सब कार्यों का नियन्त्रण करने वाला आत्मा ही है।
(१३) 'अहम्' और 'मम' अर्थात् 'मैं' और 'मेरा' इस तरह बोलने वाला और शरीरादिक का ममत्व करने वाला कौन ? तो कहना पड़ेगा कि 'प्रात्मा ही' ।
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