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होने पर भी वहाँ पर सामान्य स्वरूप में आत्मा का अस्तित्व कायम ही रहता है ।
आत्मा ज्ञानोपयोगी और दर्शनोपयोगी है। वह विज्ञानघन रूप है। कोई भी प्रात्मा ज्ञान और दर्शन के उपयोग से रहित नहीं है। विश्व में यही प्रात्मा अखण्ड वस्तु-पदार्थ है और असंख्यात प्रदेशवन्त भी है । वह स्कन्ध कहलाता है । उसका अमुक भाग देश कहलाता है तथा जिसके एक से दो विभाग की कल्पना नहीं होती है, ऐसे छोटे-में-छोटे भाग को प्रदेश कहते हैं ।
अात्मा से पुदगल द्रव्य पृथक् हो सकता है। पुद्गल द्रव्य के स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु इस तरह चार भेद पड़ते हैं। लेकिन प्रात्मा के तो स्कन्ध, देश और प्रदेश ये तीन ही भेद पड़ते हैं। प्रात्मा के असंख्यात प्रदेशों में प्रत्येक प्रदेश पर ज्ञान और दर्शन के अनंता पर्याय रहे हैं। प्रात्मा के असंख्यात प्रदेशों में से एक भी प्रदेश ज्ञान और दर्शन के उपयोग से रहित नहीं है। सर्वज्ञ की आत्मा निर्मल पारसी-दर्पण जैसी है। उसमें तीनों लोकों के और तीनों कालों के सर्व पदार्थों का प्रतिबिम्ब पड़ता है। वे सभी को उपयाग मूक्या बिना तद्-तद् स्वरूप में सम्पूर्ण रूप से जानते ही हैं। अन्य अज्ञानी
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