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________________ 60 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन (3) मानव की मानसिक जकड़न से मुक्ति-उस युग का मानव दो प्रकार के निबिड़ बन्धनों से जकड़ा हुआ था-(1) ईश्वर कर्तृत्ववाद और (2) सामाजिक, धार्मिक तथा नैतिक रूढ़ियाँ। इन दोनों बंधनों से ग्रस्त-मानव छटपटा रहा था। इन बंधनों का दुष्परिणाम यह भी हुआ कि नैतिकता का ह्रास हो गया और अनैतिकता के प्रसार को खुलकर खेलने का अवसर मिल गया। अवतारवाद तथा ईश्वर कर्तृत्ववाद के सिद्धान्त का लाभ उठाकर ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने अपनी विशिष्ट स्थिति बनाली। साथ ही ईश्वर को मानवीय भाग्य का नियन्त्रक और नियामक माना जाने लगा। इससे मानव की स्वतन्त्रता का ह्रास हुआ, नैतिकता में भी गिरावट आई। भगवान महावीर ने मानव को स्वयं अपने भाग्य का निर्माता बताकर मानवता की प्रतिष्ठा तो की ही साथ ही मानवों में नैतिक साहस भी जगाया। इसी प्रकार इस युग में स्नान (बाह्य अथवा जलस्नान) एक नैतिक कर्तव्य माना जाता था, इसे धार्मिकता का रूप भी प्रदान कर दिया गया था, जबकि बाह्यस्नान से शुद्धि मानना सिर्फ रूढ़िवादिता है। भगवान महावीर ने स्नान का नया आध्यात्मिक लक्षण देकर इस रूढ़िवादिता को तोड़ा। ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देना भी इस युग में गृहस्थ का नैतिक कर्तव्य बन गया था। इस विषय में भी भगवान महावीर ने नई नैतिक दृष्टि देकर दान से संयम को श्रेष्ठ बताया। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया कि प्रति मास सहस्रों गायों का दान देने से संयम श्रेष्ठ है। वस्तुतः भगवान महावीर दान के विरोधी नहीं है; अपितु उन्होंने तो मोक्ष के चार साधनों-दान, शील, तप और भाव में दान को प्रथम स्थान दिया है; किन्तु इस युग में ब्राह्मणों को दान देना एक रूढ़ि बन गई थी, इस रूढ़िग्रस्तता को ही भगवान ने तोड़कर मानव की स्वतन्त्रता तथा नैतिकता की स्थापना की थी। दान लेने वाला दीन व पुरुषार्थहीन न बने-इसी का ध्यान रखा गया है। ___भगवान महावीर के वचन का अनुमोदन धम्मपद' में भी मिलता है और गीता के शांकर भाष्य में भी। 1. उत्तराध्ययन सूत्र, 12 146 2. उत्तराध्ययन सूत्र, 9 140 3. धम्मपद, 106 4. देखिए, गीता 4 126-27 पर शांकर भाष्य।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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