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भगवान महावीर की नीति - अवधारणाएँ / 59
नीचा समझा जाता था; किन्तु इस ऊँच-नीच की भावना में धन भी एक प्रमुख घटक बन गया था, धनी और सत्ताधीशों को सम्मानित स्थान प्राप्त था; जबकि निर्धन सत्ताविहीन लोग निम्नकोटि के समझे जाते थे । शूद्रों, दासों की स्थिति तो बहुत ही बुरी थी, वे तो पशु से भी गये बीते थे
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यह स्थिति सामाजिक दृष्टि से तो विषम थी ही, साथ ही इसने नैतिकता को भी निम्नतम स्तर तक पहुँचा दिया था। सही शब्दों में अनैतिकता का ही बोलबाला हो गया था ।
भगवान महावीर ने इस अनैतिकता को तोड़ा। उन्होंने अपने श्रमण संघ में चारों वर्णों और सभी जाति के मानवों को स्थान दिया, तथा उनके लिए मुक्ति का द्वार खोल दिया ।
चांडाल साधक हरिकेशी ' की यज्ञकर्ता ब्राह्मण रुद्रदेव के समक्ष उच्चता दिखाकर नैतिकता को मानवीय धरातल पर प्रतिष्ठित किया । इसी प्रकार चन्दनबाला' के प्रकरण में दासप्रथा को नैतिक दृष्टि से मानवता के लिए हानिकारक सिद्ध किया । मगधसम्राट श्रेणिक' का निर्धन पूर्णिया के घर जाना और सामायिक के फल की याचना करना, नैतिकता की प्रतिष्ठा के रूप में जानी जायेगी, यहाँ धन और सत्ता का कोई महत्व नहीं है, महत्व है नैतिकता का, पूर्णिया के नीतिपूर्ण जीवन का।
इसी प्रकार एक मातंग (चांडाल ) से विद्या सीखते समय श्रेणिक का सिंहासन से नीचे उतरकर उसे ऊँचा आसन देना धन व सत्ता पर ज्ञान एवं विद्या की प्रतिष्ठा को मुद्रांकित किया गया।
भगवान महावीर ने जन्म से वर्ण व्यवस्था के सिद्धान्त को नकार कर कर्म से वर्णव्यवस्था का सिद्धान्त प्रतिपादित किया और इस प्रतिपादन में नैतिकता को प्रमुख आधार रूप में रखा।
उस युग में ब्राह्मणवाद द्वारा प्रचलित यज्ञ के बाह्यस्वरूप को निर्धारित करने वाले लक्षण को भ्रमपूर्ण बताकर नया आध्यात्मिक' लक्षण दिया, जिसमें नैतिकता का तत्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है ।
1. उत्तराध्ययन सूत्र, 12 वां हरिकेशीय अध्ययन 2. महावीर चरियं
3. श्रेणिक चरित्र
4. उत्तराध्ययन सूत्र, अ. 25, गा. 27 आदि 5. उत्तराध्ययन सूत्र, 12/44