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58 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
प्रवचनसारोद्वार में श्रावक के 21 गुणों' में भी लगभग सभी गुण नीति से ही सम्बन्धित हैं।
इस प्रकार भगवान महावीर द्वारा निर्धारित नीति-सिद्धान्तों का लगातार विकास होता रहा, और अब भी हो रहा है। यद्यपि नीति के सिद्धान्त वही हैं, किन्तु उनमें निरन्तर युगानुकूल परिमार्जन और परिष्कार होता रहा है, यह धारा वर्तमान युग तक चली आई है।
महावीर युग की नैतिक समस्यायें और भगवान द्वारा समाधान
भगवान महावीर का युग संघर्षों का युग था। उस समय आचार, दर्शन, नैतिकता, सामाजिक ऊँच-नीच, वर्ण व्यवस्था, दास-दासी प्रथा आदि अनेक प्रकार की समस्याएँ थीं। सभी वर्ग जिसमें भी समाज में उच्चता प्राप्त ब्राह्मणवर्ण अपने ही स्वार्थों में लीन था, मानवता पद-दलित हो रही थी, क्रूरता का बोलवाला था, नैतिकता को लोग भूल से गये थे। ऐसे कठिन समय में भगवान महावीर ने उस युग की समस्याओं को समझा, उन पर गहन चिन्तन किया और उचित समाधान दिया।
(1) नैतिकता के दो दृष्टिकोणों का उचित समाधान-उस समय ब्राह्मणों द्वारा प्रतिपादित एक ओर हिंसक यज्ञ चल रहे थे तो दूसरी ओर देहदण्ड रूप पंचाग्नि तप की परम्परा प्रचलित थी। यद्यपि भ. पार्श्वनाथ ने तापस परम्परा के पाखंड को मिटाने का प्रयास किया किन्तु वे अभी तक निःशेष नहीं हुए थे।
भगवान महावीर ने यज्ञ-याग, श्राद्ध आदि तथा पंचाग्नि तप को अनतिक (पापमय) कहा और बताया कि नैतिकता का सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है, इसमें पापकारी प्रवृत्तियाँ नहीं होनी चाहिए। उन्होंने विचार और आचार के समन्वय की नीति स्थापित की। उन्होंने प्रतिपादित किया कि शुभविचारों के अनुसार ही आचरण भी शुभ होना चाहिए तथा शुभ आचरण के अनुरूप विचार भी शुभ हों। यों, उन्होंने नैतिकता के बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी दोनों पक्षों का समन्वय करके मानव के सम्पूर्ण (अन्तर्बाह्य) जीवन में नैतिकता की प्रतिष्ठा की।
(2) सामाजिक असमानता की समस्या-तत्कालीन युग में जाति एवं वर्ण के अनुसार मानव-मानव में तो भेद था ही, एक को ऊँचा और दूसरे को
1. प्रवचनसारोद्धार, द्वार 239, गाथा 1356-1358