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56 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
भगवान की वाणी लोकहित के लिए है।' पाँचों महाव्रत सभी प्रकार से लोकहित के लिए है। अहिंसा भगवती लोकहितकारिणी है।' ण्मोत्थुणं सूत्र में तो भगवान को लोकहितकारी बताया ही है।' ___भगवान स्वयं तो अपना हित कर ही चुके होते हैं किन्तु अरिहन्तावस्था की सभी क्रियाएं, उपदेश आदि लोकहित ही हैं।
साधु जो निरंतर (नवकल्पी) पैदल ही ग्रामानुग्राम विहार करते हैं, उसमें भी स्वहित के साथ लोकहित भी सन्निहित है।
श्रमण साधुओं के समान ही श्रावक वर्ग और साधारण जनता भी जो भगवान महावीर की आज्ञापालन में तत्पर रहते हैं, वे भी स्वहित के साथ लोकहित को भी प्रमुखता देते हैं।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि भगवान महावीर द्वारा निर्देशित सिद्धान्तों में लोकहित को सदैव ही उच्चस्थान प्राप्त हुआ है और उनका अनुयायी वर्ग स्वहित के साथ-साथ लोकहित का भी अवरोधी रूप से ध्यान रखता है तथा इस नीति का पालन करता है।
भ, महावीर ने इन विशिष्ट नीतियों के अतिरिक्त सत्य, अहिंसा, करुणा, जीव मात्र पर दया आदि सामान्य नीतियों का भी मार्ग प्रशस्त किया तथा इन्हें पराकाष्ठा तक पहुंचाया।
नीति के सन्दर्भ में भगवान ने इसे श्रमण नीति और श्रावक नीति के रूप में वर्गीकृत किया।
श्रावक चूंकि समाज में रहता है, सभी प्रकार के वर्गो के व्यक्तियों से इसका सम्बन्ध रहता है, अतः इसके लिए समन्वय नीति का विशेष प्रयोजन है। साथ ही धर्माचरण का भी महत्व है। उसे लौकिक विधियों का भी पालन करना आवश्यक है। इसीलिए कहा गया है
सर्व एव हि जैनानां, प्रमाणं लौकिको विधिः। यत्र सम्यक्त्वहानिर्न, यत्र न ब्रतदूषणम् ॥
-सोमदेव सूरि : उपासकाध्ययन
1. प्रश्नव्याकरण सूत्र, स्कंध, 2, अ. 1,सू. 21 2. प्रश्नव्याकरण सूत्र, स्कंध 2, अ., सू. 3 3. शक्रस्तव-आवश्यक सूत्र