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________________ भगवान महावीर की नीति - अवधारणाएँ / 55 वैदिक परम्परा भी सामूहिकता अथवा संगठन का माहात्म्य मानती है । संघे शक्तिः कलौयुगे - कलियुग में संगठन ही शक्ति है-इन शब्दों में सामूहिकता की नीति ही मुखर हो रही है । आधुनिक युग में प्रचलित शासन प्रणाली - प्रजातन्त्र का आधार तो सामूहिकता है ही । ये शब्द प्रजातन्त्र का प्रमुख नारा ( slogan ) हैUnited we stand, divided we fall. 1 ( सामूहिक रूप में हम विजयी होते हैं और विभाजित होने पर हमारा पतन हो जाता है ।) सामूहिकता की नीति देश, जाति, समाज सभी के लिए हितकर है। स्वहित और लोकहित स्वहित और लोकहित नैतिक चिन्तन के सदा से ही महत्वपूर्ण पहलू रहे हैं । इसका प्रमुख कारण यह है कि यह दोनों परस्पर विरोधी प्रत्यय हैं। एक पूर्वोन्मुख है तो दूसरा पश्चिमोन्मुख । विदुर' और चाणक्य' ने स्वहित को प्रमुखता दी है और कुछ अन्य नीतिकारों ने परहित अथवा लोकहित को प्रमुख माना है, कहा है- अपने लिए तो सभी जीते हैं जो दूसरो के लिए जीए, जीवन उसी का है। यहां तक कहा गया है-जिस जीवन में लोकहित न हो उससे तो मृत्यु ही श्रेयस्कर है।' इस प्रकार की परस्पर विरोधी और एकांकी नीति - धाराएँ नीति साहित्य में प्राप्त होती हैं । लेकिन भ. महावीर ने स्वहित और लोकहित को परस्पर विरोधी नहीं माना । इसका कारण यह है कि भगवान महावीर की दृष्टि विस्तृत आयाम तक पहुंची हुई थी । इन्होंने स्वहित और लोकहित का संकीर्ण अर्थ नहीं लिया I स्वहित का अर्थ स्वार्थ और लोकहित का अर्थ परार्थ स्वीकार नहीं किया । अपितु स्वहित में परहित और परहित में स्वहित सन्निहित माना । इसलिए वे स्वहित और लोकहित का सुन्दर समन्वय जनता जनार्दन और विद्वानों के समक्ष रख सके । उन्होंने अपने साधुओं को स्व- परकल्याणकारी बनने का सन्देश दिया । इसी कारण जैन श्रमणों का यह एक विशेषण बन गया । श्रमणजन अपने हित के साथ लोकहित भी करते हैं । 1. विदुर नीति, 16 2. चाणक्य नीति, 1 16; पंचतंत्र, 11187 3. सुभाषित - - उद्धृत नीति शास्त्र का सर्वेक्षण, पृ. 208 4. वही, पृष्ठ 205
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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