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________________ 54 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन मैत्री नीति मित्रता को संसार के सभी विचारक श्रेष्ठ नीति स्वीकार करते हैं किन्तु उनकी दृष्टि सिर्फ अपनी ही जाति तक सीमित रह गई, कुछ थोड़े-से आगे बढ़े तो उन्होंने सम्पूर्ण मानव जाति के साथ मित्रता नीति के पालन की बात कही। किन्तु भगवान महावीर की मैत्री-नीति का दायरा बहुत विस्तृत है, वे प्राणीमात्र के साथ मित्रता की नीति का पालन करने की बात कहते हैं मित्ती भूएसु कप्पए।' प्राणी मात्र के साथ मैत्री का-मित्रता की नीति का पालन करें। भगवान की इसी आज्ञा को हृदयंगम करके प्रत्येक जैन यह भावना करता मित्ती में सव्व भूएसु वेरं मज्झ न केणई। प्राणी मात्र के साथ मेरी मैत्री (मित्रता) है, किसी के भी साथ शत्रुता नहीं मित्रता की यह नीति स्वयं को, और अपने साथ अन्य सभी प्राणियों को आश्वस्त करने की नीति है। सामूहिकता की नीति ___ सामूहिकता अथवा एकता सदा से ही संसार की प्रमुख आवश्यकता रही है। बिखराव, अलगपने की प्रवृति अनैतिक है और परस्पर सद्भाव, सौहार्द, मेल-मिलाप नैतिक है। भगवान महावीर ने सामूहिकता तथा संघ ऐक्य का महत्त्व साधुओं को बताया। उनके संकेत का अनुगमन करते हुए साधु भोजन करने से पहले अन्य साधुओं को निमन्त्रित करता और कहता है कि यदि मेरे लाये भोजन में से कुष्ट ग्रहण करे तो मैं संसार सागर से तिर जाऊं। साहू होज्जामि तारिओ। दशवैकालिक सूत्र के इन शब्दों में यही नीति परिलक्षित होती है। भगवा महावीर ने 'संविभागशील' समूह में बांटकर सबके साथ मिलकर रहने व आदेश/उपदेश किया है। 1. उत्तराध्ययन सूत्र, 6 12 2. आवश्यक सूत्र, 5 3. दशवैकालिक सत्र, 51125
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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