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________________ 50 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन समझा देते हैं; किन्तु जिज्ञासु से वह आग्रह नहीं करते कि उनकी बातों को स्वीकार कर ही ले । स्वीकार करना अथवा न करना, वे उस जिज्ञासु के विवेक पर छोड़ देते हैं। इसीलिए भगवान महावीर ने एक सूत्र दिया पन्ना समक्खिए धम्म। अपनी प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा करो। धर्म को समझने के बाद जब कोई उसे स्वीकार करने के लिए भ. महावीर से पूछता है तो वे एक ही उत्तर देते हैं ___अहासुहं देवाणुप्पिया! देवानुप्रिय, तुम्हें जैसा सुख हो, वैसा करो। धार्मिक जगत में अनाग्रह की यह नीति जितनी महत्वपूर्ण है, उतनी ही लौकिक जगत में भी है। आग्रह से व्यक्ति दबाव का अनुभव करता है, वह समझता है कि उसे अनुचित दबाया जा रहा है फिर उसके मन में इस क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, विरोधी भाव उत्पन्न होते हैं, विग्रह के बीज पड़ते हैं, परस्पर मन-मुटाव होता है। धीरे-धीरे बढ़कर यह परिवार और समाज में विश्रृंखलता उत्पन्न करता है। आज संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, भाई-भाई में विरोध हो रहा है, इस सबके मूल में आग्रह ही है। __ और यदि आग्रह हठाग्रह अथवा कदाग्रह बन जाए तब तो स्थिति और भी विषम हो जाती है। आज संसार के सभी औद्योगिक देश दबाव समूहों (Pressure groups) से संत्रस्त हैं। ये समूह अनुचित रूप से घोर आग्रहपूर्ण ढंग से दबाव द्वारा अपने हक (arrogation) माँगते हैं। उनकी यह नीति दुर्नीति है। यदि आज संसार भ. महावीर की अनाग्रह की नीति अपना ले तो संसार में सुख-शांति की सरिता बहने लगे। अनेकांत नीति अनेकांत किसी भी वस्तु को सभी दृष्टिकोणों से जानने की, विचार करने की नीति है। बहुत से लोग केवल अपने ही दृष्टिकोण से किसी घटना, तथ्य या वस्तु को देखते हैं और दूसरे के दृष्टिकोण की अवहेलना कर देते हैं। इसका परिणाम पारस्परिक विद्वेष के रूप में आता है।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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