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________________ 40 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन मृत्युदण्ड खाते थे । नवयुवकों को भ्रष्ट करने का आरोप लगाकर उसे 1 दिया गया जिसे उसने सहर्ष स्वीकार करके विष का प्याला पीकर प्राणोत्सर्ग कर दिया। अपने अन्तिम समय में सुकरात ने अपने मित्र क्राइटो को तीन सिद्धान्त दिये (1) किसी को हानि न पहुँचाना। (2) अपने वायदों का पालन करना (3) माता-पिता तथा शिक्षकों का सम्मान करना' इन तीन सिद्धान्तों को ही पाश्चात्य नीति का आधार कहा जा सकता है। उसके उपरान्त प्लेटो ने नीति के सिद्धान्तों को कुछ आगे बढ़ाया। उसने नीति को समाज का समन्वयकारी तत्व अथवा विधि स्वीकार किया और नीति के साथ न्याय (just ) को भी परिभाषित किया । किन्तु इसके बाद यूनानी सभ्यता का पतन हो गया और यूरोप में अराजकता छा गईं। परिणामस्वरूप नीति के विषय में भी कोई काम न हो सका । तदुपरान्त ईसा की सोलहवीं -सत्रहवीं शताब्दी में जब पुनर्जागरण (Renaissance) हुआ तो नीति के क्षेत्र में भी काम हुआ। शापेनहावर, कांट, स्पिनोजा आदि ने नीति सम्बन्धी सिद्धान्त, प्रत्यय आदि निर्धारित किये। इस ऐतिहासिक विवेचन से स्पष्ट है कि पाश्चात्य नीतिशास्त्र का विकास, जितना भी दिखाई देता है, वह सब आधुनिक काल में ही हुआ है, उसका कोई विशेष सुदृढ़ प्राचीन दृष्टिगोचर नहीं होता । किन्तु जैसा कि डा. दिवाकर पाठक लिखते हैं “पश्चिमी विचारक प्रायः भारतीय संस्कृति की प्राचीनता के अध्ययन की कमी के कारण प्रत्येक ज्ञान - विज्ञान का श्रीगणेश यूनान की संस्कृति से ही मानते हैं। इन लोगों के अनुसार आचार-सम्बन्धी दार्शनिक सिद्धान्तों (और नैतिक सिद्धान्तों का भी ) प्रतिपादन सबसे पहले यूनान में ही हुआ । किन्तु इस विचारधारा में आंशिक सत्यता है ।" " अपने मत की पुष्टि में वे अमेरिकी विद्वान होपकिन्स का निम्न कथन प्रस्तुत करते हैं “यद्यपि पश्चिम ने भारतीय मस्तिष्क (चिन्तन) को वर्षों पूर्व ढूंढ़ निकाला था और आज भी अगणित बौद्ध गाथाओं की चर्चा करता है; तथापि भारतीय 1. डा. रामनाथ शर्मा : पाश्चात्य नीतिशास्त्र, पृ. 1 2. डा. दिवाकर पाठक : भारतीय नीतिशास्त्र, पृ. 5
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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