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ईसाई धर्म की नीति
ईसाई धर्म के प्रवर्तक महात्मा ईसा थे। इनका जन्म आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व हुआ था। इनके धर्म का प्रचार संसार में सर्वाधिक है। सारे संसार में इसके अनुयायी फैले हुये हैं।
इनके धर्म का मूलाधार मानवता या मानव सेवा है। अतः इस धर्म की नीति भी मानवतावादी है। मानवता इसका प्रमुख तत्व है।
मानव में मानवता जगाने के लिए इन्होंने नम्रता, दया, क्षमा, प्रेम आदि बातों पर विशेष बल दिया।
पड़ोसी के साथ व्यवहार की नीति के विषय में कहा हैThou shalt not hurt thy neighbour. तुम अपने पड़ौसी को हानि मत पहँचाओ।
परिग्रह मानवता के विकास में बहुत बड़ा बाधक है। परिग्रही व्यक्ति के हृदय से मानवता पलायन कर जाती है। अतः अपरिग्रह नीति का अनुसरण करते हुए बताया है
“सुई के छेद में से ऊँट का निकल जाना संभव है किन्तु किसी धनवान व्यक्ति का स्वर्ग में प्रवेश पाना असम्भव है।"
इन शब्दों में उन्होंने संग्रह-विरक्ति की नीति का उपदेश दिया।
समझौता, सुलह और प्रेमभाव की नीति का प्रसार करने के लिए उन्होंने कहा
“यदि कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो उसकी ओर अपना दूसरा गाल कर दो।"
समाज में सुख, शांति और सामाजिक सुव्यवस्था के लिए यह सभी नीतियां आवश्यक भी हैं और उपयोगी भी।
इस प्रकार बाइबिल में नीति के अनेक आदर्श वचन मिलते हैं।
पाश्चात्य नीतिशास्त्र का विकास
पाश्चात्य नीतिशास्त्र का उद्भव सुकरात से माना जाता है। इसका समय ईसा पूर्व छठी शताब्दी का है।
सुकरात की समस्या विशुद्ध रूप से नैतिक समस्या थी। उसने अपने नैतिक विचारों का प्रसार किया। वे सिद्धान्त राज्य के सिद्धान्तों से मेल नहीं