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नीतिशास्त्र का उद्गम एवं विकास / 27
धनमाहु परंधर्म धने सर्व प्रतिष्ठितम्।
जीवंति धनिनो लोके मृतायेत्वधना नराः ॥ -(धन तो परम धर्म (सबसे बड़ा धम) है क्योंकि धन में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है। संसार में धनी ही जीवित है, निर्धन पुरुष को तो मरा हुआ ही समझो।) यही नीति भृर्तहरि की इस उक्ति में प्रतिपादित है
सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ति। (सभी गुण स्वर्ण (धन) के आश्रित रहते हैं।)
प्रसिद्ध लोकोक्ति ‘बिन टका टकटकायते' में भी इन्हीं संस्कृत सूक्तियों की छाया दृष्टिगोचर होती है। ___संस्कृत महाकाव्यों में रामायण और महाभारत के अतिरिक्त बुद्धघोष के बुद्धचरित्र तथा सौन्दरानन्द, कालिदास के रघुवंश तथा कुमारसंभव, भारवि का किरातार्जुनीय, भट्टि का रावण वध (इसका दूसरा बहुप्रचलित नाम भट्टि काव्य है), माघ का शिशुपालन आदि है। इनमें यत्र-तत्र नीति की अनेक सूक्तियां मिलती हैं।
कालिदास की यह सूक्ति लोकोक्ति के रूप में प्रसिद्ध हैं-- एकोहि दोषो गुण सन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवांकः।।
-(जैसे चन्द्रमा की ज्योति में उसका कलंक छिप जाता है वैसे ही गुणों के समूह में एक दोष भी छिप जाता है।) वचन सम्बन्धी भारवि की यह सूक्ति भी उल्लेखनीय है
हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः। (ऐसा वचन दुर्लभ है जो हितकारी तथा मन को अच्छा लगने वाला भी हो।) पौराणिक नीति
पुराणों की संख्या 18 मानी गई है। इनके रचयिता महाभारतकार महर्षि वेदव्यास माने जाते हैं। जिस प्रकार महाभारत में नीति के अनेकों श्लोक मिलते हैं, उसी प्रकार पुराणों में भी यत्र-तत्र नीति सम्बन्धी श्लोक और सूक्तियाँ भरी
1. महाभारत, 5 172173 2. उद्धृत, डा. भोलानाथ तिवारी : हिन्दी नीति काव्य, पृष्ठ 32 3. वही, पृष्ठ 33