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नीतिशास्त्र का उद्गम एवं विकास / 25
आदर्श सेवक आदि का सुन्दर वर्णन स्वभावतः आया है। साथ ही इसमें नीतियाँ भी यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हैं। कहीं-कहीं नीति के श्लोक विषयानुसार भी रखे गये हैं।
राजनीति की दृष्टि से सुन्दरकांड का 52 वाँ सर्ग, उत्तरकांड का 53 वाँ सर्ग, अरण्यकांड का 40 वाँ सर्ग तथा अयोध्याकांड का 100 वाँ सर्ग दुष्टव्य है। सामान्य नीति का वर्णन उत्तरकांड के 52 वें सर्ग तथा अयोध्या कांड के 140वें सर्ग में मिलता है और स्त्री सम्बन्धी नीति के लिए अयोध्याकांड का 139वाँ सर्ग देखा जा सकता है। अधिक विस्तार में न जाकर यहां हम एक दृष्टान्त देते हैं
अकुर्वन्तोऽपि पापानि शुचयः पाप संश्रयात्।
पर पापैर्विनश्यन्ति मत्स्या नाग हृदे यथा ॥ (जो पाप नहीं करते, वे भी पापीजनों के संसर्ग से नष्ट हो जाते हैं जैसे सर्पयुक्त जल-कुण्ड की मछलियाँ सर्पो के संसर्ग से (गरुड़ द्वारा) नष्ट हो जाती हैं।)
प्रस्तुत श्लोक में कुसंगति अथवा दुर्जनों की संगति का कटुफल बताया गया है। इसी प्रकार के श्लोक अन्य संस्कृत तथा हिन्दी के नीति काव्यों में प्राप्त होते हैं।
इसी प्रकार एक अन्य स्थान पर यह दर्शाया गया है कि व्यक्ति के वास्तविक रूप को साथ रहकर ही जाना जा सकता है।
पम्पा सरोवर पर एक बगुले को धीरे-धीरे चलते देखकर श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण से बोले
पश्य लक्ष्मण! पंपायां बकः परमधार्मिकः।
दृष्ट्वा दृष्ट्वा पदम् धत्ते, जीवानां वधशंकया। -(हे लक्ष्मण! देख यह बगुला परमधार्मिक है। जीव न मर जाय, इस शंका से देख-देखकर धीरे-धीरे कदम रख रहा है।) इस पर जल में तैरती एक मछली ने कहा
बकः किं शस्यते रामः येनाहं निष्कुलीकृतः।
सहचारी विजानीयात् चरित्रं सहचारिणाम् ॥ -(हे राम! जिस बगुले को आप परम धार्मिक समझ रहे हैं उसका असली रूप मुझसे पूछिए। इसने मेरे कुल का ही नाश कर दिया है (मछलियों को गटक गया है)। सत्य तो यह है कि दूर से वास्तविकता का पता नहीं लगता, साथ रहने वाला ही अपने साथी के असली रूप को सही ढंग से जान पाता है।) 1. वाल्मीकि रामायण, 3 138 126