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486 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
संगठन
संतोष
संसार
संस्कार
स्वार्थ
निर्बल हू दल बांधिके, सबलहिं देत हराय । ज्यों सींगन सौ गाय गन, वनपति हेति भगाय |
नहिं धन धन है परम, धन तोषहिं कहैं प्रवीन । बिन संतोष कुबेरऊ दारिद दीन
यह ऐसा संसार है, जैसा सेमल दिन दस के व्यवहार कौ, झूठे रागि
न
- दुलारे दो., 175
मलीन ।
- दृष्टान्त तरंगिणी, पृ. 32
फूल ।
भूल ।।
सुर नर मुनि सब कर यह रीती । स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ।
बारेपन सौं मातु-पितु जैसी डारति बान । सो न छुटाए पुनि छुटत रतन भयहु सयानि ।।
- कबीर ग्रन्थ, पृ. 21
- रत्नावली दोहा., 138
बालहि लालहु अस रतन जो न औगुनी होइ । दिन - दिन गुन गरुता है सांचौ लालन सोइ ।।
- रत्नावली दोहा., 187
सांई सब संसार में मतलब का व्यवहार
- मानस सूक्त, पृ. 117
- गिरिधर कुण्ड., 36
।
बिन स्वारथ कैसे है, कोऊ करुवै वैन लात खाय पुचकारिए, होय दुधारु धैन ।
- वृन्द सतसई, 145