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परिशिष्ट : हिन्दी साहित्य की सूक्तियाँ / 487
स्वभाव
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग। चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।।
-रहीम दो., 79 नीच निचाई नहिं तजै जो पावहि सत संग। तुलसी चंदन बिटप बसि, बिन विस भय न भुजंग।।
-तुलसी सतसई, 6/21
ज्ञान
हाय हाय तब लग रहै, जब लग बाहर दृष्ट। अन्तर्मुख जब ही भई सब मिटि जाइ अनिष्ट।।
-गिरिधर कुण्ड., 188