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________________ परिशिष्ट : हिन्दी साहित्य की सूक्तियाँ / 481 सतरां सगो न कोय, असीआं आस न कोई। नांह नब्बे में होय, हंसे तिहां लोग-लुगाई।। सौ हुओ-सौ सब को कहें, सब तन हो गयो जोजरो। घर की पतिव्रता यूं कहे, ओ मरै तो सुधारै डोकरौ।। -भाषा श्लोक सागर माया माया भ्रम को मूल, भ्रम बिनु जाय न दुक्ख जग। रे मन मायाबन्ध, तजहु भजहु मायापतिहि।। -नीति छन्द. माँस भक्षण बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल । जो नर बकरी खात है, ताको कौन हवाल ।। -कबीर ग्रन्थ., पृ. 42 मित्र अवगुन गनहि निवारिबै, गुनहि गहायै जौन। हितकारी उपकाररत मीत सरिस है कौन। -सदाचार सोपान, 81 मृत्यु रहिमन भेषज के किए काल जीति जो जात। बड़े बड़े समरथ भए तौ न कोइ मरि जात ।। -रहीम दोहा., 220 झूठे सुख को सुख कहै मानत है मन मोद। जगत चबीणा काल का, कछु मुख में कछु गोद। -कबीर ग्रन्थ., पृ. 71 मोह मोह अंधेरो कारने दीखे सत्य असत्य । ईश दीप्ति से दूर हो, सत्य होइ तब सत्य।। -नीति छन्द.
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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