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________________ 482 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन याचना रहिमन याचकता गहै बड़े छोट है जात। नारायण को हू भयो बावन आंगुर गात। -रहीम दोहा., 224 राग द्वेष कह गिरिधर कविराय, सुखी सो कैसे होवे। तृष्णा राग रु द्वेष ईर्ष्या मत्सर बोवै।। ___-गिरधर कुण्डलिया, 198 ना काहु सौ राग है, न काहू सौं द्वेष। उसे और क्या चाहिए, वह तो है सर्वेश।। -नीति छन्द. लाज नर भूषन सब दिन क्षमा, विक्रम अरि घनघेर। त्यों तिय भूषन लाज है, निलज सुरत की बेर।। -वृन्द सतसई, पृ. 212 लोभ लोभ सरिस अवगुण नहीं, तप नहीं सत्य समान। -गिरिधर दास, कविता कौमुदी, भाग 1, पृ. 493 लोभ लगै जग में सुप्रिय, धरम न तैसे होय। महिषी पालत छीर हित, तथा न कपिला होय।। -दीनदयाल, दृष्टान्त तरंगिणी, 49 वक्र टेढ़ देख संका सब काहू, वक्र चंद्रमहिं ग्रसै न राहू। -तुलसी : रामचरित मानस बसै बुराई जासु तन, ताही कौ सन्मानु। भले भले कह छाँड़िये, खोटे ग्रह जप-दानु।। -बिहारी सतसई
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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