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480 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
मदिरापान
मन
मन के कंटक
मनुष्य
माता-पिता
मुंह जब लागै तब नहिं छूटै । जाति मान धन सब कुछ लूटै ।।
पागल करि मोहे करै खराब । क्यों सखि साजन ? नहीं शराब ।।
मन सौं मित्त न कोई, जो अपने बस होत है । कहे माहिं ना होइ, तो ऐसौ अरि और ना । ।
मानव दशा
- भारतेन्दु सुधा, पृ. 32
तुष्टहिं निज रुचि काज करि रुष्टहिं काज बिगारि । तिया तनय सेवक सखा, मन के कंटक चारि ।।
रन-रन सूरं न होत हैं, जन-जन होत न भक्त हरि । नंद सकल सुनो नरहरि कहत; सब नर होत न एक सरि ।। - कविता कौमुदी भा. 1, पृ. 229
मातु - पिता मन पोषि तापर निचे होत है
-जान सतवाना
- तुलसी सतसई, 7/26
बहुत करै मनुहार । दयावन्त करतार ||
-जान सतवाना
भवे प्रायीक बरस चालीसा मीठो । कड़वो होय पचास साठ तिहां क्रोध पइठो ।।
पुरुष