SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 478 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन निर्बल को न सताइये, जाकी मोटी आह। मरी खाल की सांस से, लोह भस्म ह जाय।। ___ -सूक्ति सुधा, पृ. 6 पड़ौसी पड़ौसी सूं रूसणा, तिल-तिल सुख की हाणि।। -कबीर ग्रन्थ., पृ. 37 विपत परै सुख पाइये, जो ढिंग करिए भौन। नैन सहाई बधिर के, अन्ध सहाई श्रौन। -वृन्द सतसई, 247 परोपकार परहित कर बरनत न बुध, गुपति रखहिं दै दान। पर उपकृति सुमिरत रतन, करत न निज गुन गान।। -रत्नावली दो., 182 परिवार कुल मारग छोड़े न कोउ होहु कितै की हानि। गज इक मारत दूसरों चढ़त महावत आनि।। -वृन्द सतसई, पु. 69 पुत्र रतन बांझ रहिवौ भलो, पै न होउ कपूत। बांझ रहे तिय एक दुख पाइ कपूत अकूत।। -रत्नावली दोहा., 185 जननी जनै तो एक सुत, कै जोगी कै सूर। नहीं तौ जननी बांझ रह, मती गंवावे नूर।। प्रेम प्रीति सुखद है सुजन की, दिन-दिन होय विशेष। कबहुं मेटे ना मिटे ज्यों पाहन की रेष। __-दृष्टान्त तरंगिणी, 109
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy