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________________ 470 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन वाणी अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन। न चेमं देहमाश्रित्य वैवं कुर्वीत् केनचित्।। __-मनुस्मृति, 6/47 किसी के द्वारा कही गई कटु-कठोर वाणी को सहन करें। किसी का अपमान न करे और इस शरीर के साथ शत्रुता न करे। वाणी-विवेक दीनान्धपंगुबधिरा नोपहास्या कदाचन। -शुक्रनीति, 3/115 दीन, अन्धे, पंगु और बहरे मनुष्यों का कभी उपहास नहीं करना चाहिए। शील शीलं प्रधानं पुरुषे तदस्येह प्रणश्यति। न तस्य जीवितेनार्थो न धनेन न बन्धुभिः ।। -महाभारत, उद्योगपर्व, 34/48 मनुष्य में शील (सदाचार) की ही प्रधानता होती है। जिसका शील ही संसार में नष्ट हो जाता है उसको न जीवन से, न धन से और न बन्धुओं से कोई प्रयोजन है। शुद्धि आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः। स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विमोक्षः। -छान्दोग्य उपनिषद, 7/26/2 आहार की शुद्धि से अन्तःकरण की शुद्धि होती है; अन्तःकरण की शुद्धि होने पर अटल स्मृति का लाभ होता है और स्मृति लाभ से सभी ग्रन्थियां खुल जाती हैं। सत्य सत्यं ब्रूयात्प्रियंबूयात ब्रूयात्सत्यमप्रियम्। प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्म सनातनः ।। -मनुस्मृति, 4/138
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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