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________________ परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 469 मित्र विद्या शौर्यं च दाक्ष्यं च बलं धैर्य च पञ्चमम्। मित्राणि सहजान्याहुवर्तयन्ति हि तैर्बुधाः।। -शुक्रनीति, 4/13 (1) विद्या (2) शूरता (3) दक्षता (4) बल और (5) धैर्य-ये मनुष्य के सहज मित्र होते हैं, क्योंकि बुद्धिमान मनुष्य इन्हीं से जीवन-वृत्ति चलाते हैं। मृदुता मृदुना दारुणं हन्ति मृदुना हन्त्यदारुणम्। नासाध्यं मृदुना किंचित् तस्मात् तीव्रतरं मृदुः ।। -महाभारत, वनपर्व, 28/31 मृदुता से मनुष्य कठोर को नष्ट कर देता है; मृदुता से ही अकठोर को भी विजित कर लेता है, मृदुता के प्रयोग से कुछ भी असाध्य नहीं है इसलिए मृदुता ही सर्वोत्तम नीति है। वचन जिह्वाया अग्रे मधु से जिह्वामूले मधूलकम् । ममेदह क्रतावसो ममचित्तमुपयासि ।। -अथर्ववेद, 1/34/2 मेरी जिह्वा के अग्रभाग में माधुर्य हो। मेरी जिह्वा के मूल में मधुरता हो। मेरे कर्म में माधुर्य का निवास हो और हे माधुर्य! तुम मेरे हृदय तक पहुंचो। वचन-विवेक क्रुद्धयन्तं न प्रतिक्रुद्धयेदाक्रुष्टः कुशलं वदेत्। सप्तद्धारावकीर्णा च न वाचमनृतां वदेत् ।। ___ -मनुस्मृति, 6/48 क्रोधित व्यक्ति के प्रति भी क्रोध न करे। किसी से निन्दित होने पर भी उससे मधुर वाणी बोले। सात द्वारों (पांच इन्द्रियां, मन और अन्तःकरण) से निकली असत्य वाणी न बोले।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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