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468 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
परोपकारी
उपकारस्य धर्मत्वे विवादो नास्ति कस्यचित् । भूतेष्वभयदानेन नान्या चोपकृतिर्मम ।।
-कथा सरित्सागर, 6/1/24 उपकार करना धर्म है-इस विषय में किसी को कोई विवाद नहीं है और प्राणियों को अभयदान देने से बढ़कर दूसरा कोई उपकार नहीं है। आपन्नार्तिप्रशमनफलाः सम्पदो ह्यत्तमानास्।
-मेघदूत, पूर्वमेघ, 57 उत्तम मनुष्यों की सम्पत्ति का फल विपत्तिग्रस्त व्यक्तियों के दुःख को शान्त करना है।
पुरुषार्थ
यथा बीजं बिना क्षेत्रमुक्तं भवति निष्फलम् । तथा पुरुषकारेण बिना दैवं न सिद्धति।।
-महा. अनुशासन पर्व, 6/7 जिस प्रकार बीज बोए बिना क्षेत्रफल-रहित होता है उसी प्रकार पुरुषार्थ के बिना भाग्य भी सिद्ध नहीं होता। भाग्य
उद्यमः साहसं धैर्यः बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः।
षडेते यत्र वर्तन्ते, तत्र दैव सहायकृत्।। उद्यम, साहस, धैर्य,बुद्धि, शक्ति और पराक्रम-ये छह जहां (जिस पुरुष में) होते हैं, भाग्य उसी को सहायता करता है। मन
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवेति। . दूरङ्गमंज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।।
-यजुर्वेद, 34/1 जो दैवमान जाग्रत अवस्था में दूर चला जाता है और वैसे ही प्रसुप्त अवस्था में भी दूर चला जाता है, दूर होकर भी ज्योतिषियों का एक प्रकाशक यह मेरा मन शुभ संकल्प से युक्त हो।