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परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 467
कार्यनाश
नालसाः प्राप्नुवन्त्यर्थ, न क्लीवा न च मानिनः ।
न च लोकापवादभीताः, न च शश्वत् प्रतीक्षिणः।। आलसी व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते, न क्लीव (साहसहीन) और न अभिमानी ही। लोकापवाद से भयभीत और दीर्घसूत्री (लम्बे समय तक सोचने और प्रतीक्षा करने वाले) भी लक्ष्य प्राप्ति में विफल हो जाते हैं।
निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः। सर्वार्था व्यवसीदन्ति, व्यसनं चाधिगच्छति।।
-वा. रा. सु. कां. 2/6 निरुत्साही, दीन और शोक से व्याकुल मनष्य के सभी कार्य नष्ट हो जाते हैं और वह आपत्ति में पड़ जाता है।
दोष
सर्वमतिमात्रं दोषाय
-उत्तररामचरित, 6 सभी वस्तुओं की अति दोष उत्पन्न करती है। नीति-पथ चलति नयान्न जिगीषतां चेतः।।
-किरातार्जुनीय, 10/29 विजय की कामना करने वालों के चित्त नीति-पथ से विचलित नहीं होते। परिवार
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वासरमुत स्वसा। सम्यञ्चः सव्रता भूत्वा वाचं बदत भद्रया।।
-अथर्ववेद, 3/30/3 भाई-भाई के साथ द्वेष न करे। बहन बहन से विद्वेष न करे। समान गति और समान नियम वाले होकर कल्याणमयी वाणी बोलें।