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466 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
सुख-दुःख सव्वं परवसं दुक्खं, सव्वं इस्सरियं सुख।
-उदान, 2/9 जो पराधीन है, वह सब दुःख हैं और जो स्वाधीन है वह सब सुख है। संगति
यादिसं कुरुते मित्तं, यादिसं चूपसेवति। स वे तादिसको होति, सहवासो हि तादिसो।
-इतिवृत्तक, 3/27 जो जैसा मित्र बनता है और जो जैसे संपर्क में रहता है, वह वैसा ही बन जाता है, क्योंकि उसका सहवास (संगति) ही वैसा है। वैदिक साहित्य की सूक्तियां आज और कल अद्धा हि तत यदद्य । अनद्धा हि यद् तच्छवः।
-शतपथ ब्राह्मण, 2/3/1/28 'आज' तो निश्चित है और 'कल' अनिश्चित है। उद्योगशीलता
उत्थानेनैधमेत्सर्वमिन्धनेनैव पावकम् । श्रियं हि सततोत्थायी दुर्बलोपि समश्नुते।
-कामन्दकीय नीतिसार, 13/9 जैसे ईंधन डालने से अग्नि की वृद्धि होती है, उसी प्रकार पुरुषार्थ करने से ही सबकी उन्नति होती है। निरन्तर उद्योगशील मनुष्य निर्बल होने पर भी लक्ष्मी प्राप्त कर लेता है। कर्म यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि, नो इतराणि।
-तैत्तिरीयोपनिषद्, In दोषरहित कर्मों का ही आचरण करना चाहिए, अन्यों का नहीं।