SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 493
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 465 वाणी विवेक मा वोच फरुसं किंचि, वुत्ता परिवदेव्युं तं। -धम्मपद, 10/5 ऐसा कठोर वचन मत बोलो, ताकि तुम्हें बोलकर फिर पछताना पड़े। वैर न हि वेरेण वेराणि, सम्मन्तीध कुदाचन। अवेरेण च सम्मन्ती; एस धम्मो सनन्तनो।। -धम्मपद, 115 वैर से वैर कभी शांत नहीं होते; अवैर से ही वैर शांत होते हैं शांति उभिन्नमत्थं चरति, अत्तनो च परस्स च। परं संकुचित ञत्वा, यो यतो उपसम्मति।। संयुत्तनिकाय, 1/4 दूसरे को कुपित जानकर भी जो स्मृतिमान शान्त रहता है, वह अपना और दूसरे का-दोनों का भला करता है। न हि रुण्णेन सोकेन, सन्ति पप्पोति चेतनो। -सुत्तनिपात, 3/24/11 रोने से या शोक करने से चित्त को शांति प्राप्त नहीं होती। शील सीलगंधी अनुत्तरो। -धम्मपद, 4/22 शील (सदाचार) की सुगन्ध सर्वश्रेष्ठ है। सत्य-रस सच्चं हवे सादुत्तरं रसानं। -सुत्तनिपात, 1/10/2 सभी रसों में सत्य का रस ही अनुपम/सर्वश्रेष्ठ है।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy