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________________ 464 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन दुर्बुद्धि-सुबुद्धि एकंगडदस्सी दुम्मेधो, सतदस्सी च पण्डितो। -थेरगाथा, 1/106 मूर्ख (दुर्बुद्धि) सत्य का एक ही पहलू देखता है और पण्डित (सुबुद्धि) सत्य के सौ पहलुओं को देखता है। प्रज्ञा पञाचक्खु अनुत्तरं -इतिवृत्तक, 3/12 प्रज्ञा (बुद्धि) की आंख सर्वश्रेष्ठ है। प्रामाणिकता संवोहारेण खो, महाराज, सोचेइयं वेदितव्यं । -उदान, 6/2 हे महाराज! व्यवहार करने पर ही मनुष्य की प्रामाणिकता का पता चलता खुद्दा वितक्का सुखुमा वितक्का, अनुग्गता मनसो उप्पिलावा। -उदान, 4/1 अन्तर (मन) में उठते वाले क्षुद्र और सूक्ष्म वितर्क (विकल्प) मन को उद्धेलित करते हैं। यश तथा कीर्ति निसम्मकारिनो राज, यसो कित्तिं च वड्डती। -सुत्तपिटक (जातक), 4/332/128 हे राजन! सोच समझकर कार्य करने वालों के ही यश तथा कीर्ति बढ़ती
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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