SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 491
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म - सुत्तनिपात, 1/8/3 ऐसा कोई क्षुद्र (ओछा) आचरण नहीं करना चाहिए, जिसे विद्वान लोग बुरा बताएं। आलस परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 463 येन विञ्ञू परे उपवदेय्युँ । चित्त सो विन्दते सुखं । आलसी को सुख नहीं मिलता । - सुत्तपिटक (जातक), 17/521/12 न हि नस्सति कस्सचि कम्म, एतिह नं लभतेव सुवामि - सुत्तनिपात 3/36/10 किसी का कृत कर्म नष्ट नहीं होता, समय पर वह कर्ता को प्राप्त होता ही है। काम-भोग यो कामे कामयति, दुक्खं सो कामयति । - थेरगाथा, 1/93 जो काम-भोगों की इच्छा करता है, वह दुःखों की कामना करता है । क्रोध क्रोध मन का धुँआ है। कोच्च ि धूम | - चुल्लनिद्देस (पालि), 2/3/17 चित्तस्स दमथो साधु, चित्तं दन्तं सुखावह - धम्मपद, 3/1 चंचल चित्त का दमन करना अच्छा है, दमन किया हुआ चित्त सुखकारी होता है।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy