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परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 471 सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए; किन्तु अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए और न प्रिय असत्य ही बोलना चाहिए यही शाश्वत (सनातन) धर्म है।
समानता
समानी व आकूति: समाना हृदयानि वः । समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।।
-ऋग्वेद, 10/191/4 तुम्हारा संकल्प समान हो, तुम्हारे हृदय समान हों, तुम्हारे मन एक समान हों, जिससे तुम्हारी शक्ति विकसित हो। संगति
मन्दोऽप्यमन्दतामेति संसर्गेण विपश्चितः। पंकच्छिदः फलस्येव निकषेणाविलं पयः।।
--मालविकाग्निमित्र, 27 मन्दबुद्धि वाला व्यक्ति भी बुद्धिमान व्यक्ति के सम्पर्क से चतुर हो जाता है, जैसे निर्मली फल के सम्पर्क से दूषित जल भी शुद्ध हो जाता है। संग्रह
संग्रहो नास्ति कर्तव्यों दुःखभागन्यथा भवेत् । उद्वास्यन्ते द्विरेफा हि लुब्धकैर्मधु संग्रहात्।।
-बुद्धचरित, 26/44 अति संचय नहीं करना चाहिए अन्यथा कष्ट भोगना पड़ता है। मधु का संग्रह करने के कारण मधुमक्खियां व्याधों के द्वारा उड़ा दी जाती हैं।