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परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 459 साधनहीन पुरुष अपने अभीष्ट कार्य को सिद्ध नहीं कर सकता है।
सुख-दुःख
विरत्त चित्तस्य सयाऽवि सुक्खं। रागाणुरत्तस्य अईव दुक्खं। एवं मुणित्ता परमं हि तत्तं । नीरागमग्गम्मि धरेह चित्तं।।
-संबोध सत्तरि, 6 जिसका चित्त (सांसारिक सुख-भोगों से) विरक्त होता है, उसे सदा सुख ही सुख है और राग (सांसारिक राग) में रंगे हुए चित्त वाले प्राणी को अत्यधिक दुःख है। इस परम तत्व पर मनन करके वीतराग मार्ग में चित्त को स्थिर करना चाहिए। सुभाषित वाणी
सुभासियाए भासाए सुकडेण य कम्मुणा। पञ्जुण्णे कालवासी वा, जसं तु अभिगच्छति।।
-इसिभासियाई, 33/4 सुभाषित वाणी और सुकृत कर्मों के द्वारा मानव समय पर बरसने वाले मेघ के समान यश को प्राप्त करता है। हितकर-अहितकर
कोहो विसं किं अमयं अहिंसा, माणो अरी किं हियमप्पमाओ। माया भयं किं सरणं तु सच्चं। लोहो दुहं कि सुहमाहु तुट्ठी।
-गौतम कुलक, 4 क्रोध जहर के समान घातक है किन्तु अहिंसा अमृत है। अभिमान शत्रु है और अप्रमाद हितकारी मित्र है। माया भय है और सत्य शरण है। लोभ दुःख है और सन्तोष सुख है।