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________________ 460 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन क्षमा सीलं वरं कुलाओ, दालियं भव्वयं च रोगाओ। विज्जा रज्जाउ वरं खमा वपरं सुठु वि तवाओ। -वज्जालग्ग, 8/5 कुल से शील श्रेष्ठ है, रोग से दारिद्र ये श्रेष्ठ है, राज्य से विद्या श्रेष्ठ है और क्षमा बड़े से बड़े तप से भी श्रेष्ठ है। ज्ञान नाणे नाणुवदेसे, अवट्माणो अन्नाणी। -निशीथभाष्य, 4791 जो ज्ञान के अनुसार आचरण नहीं करता, वह ज्ञानी भी अज्ञानी है। न नाणमित्तेण कज्जनिप्फत्ती। -आवश्यकनियुक्ति, 1151 जान लेने मात्र से कार्य सिद्धि नहीं हो सकती। सव्वजगुज्जायकरं नाणं। -व्यवहारभाष्य, 7/216 ज्ञान संसार के समस्त रहस्यों को प्रकाशित करने वाला है। विविध चतुर्थंगी दानी गज्जित्ता णामं एगे णो वासित्ता। वासित्ताणामं एगे णो गज्जित्ता। एगे गज्जिता वि वासित्ता वि। एगे णो गज्जित्ता, णो वासित्ता। -स्थानांग, 4/4 मेघ के समान दानी भी चार प्रकार के होते हैं(1) कुछ बोलते हैं, देते नहीं। (2) कुछ देते हैं, पर बोलते नहीं। (3) कुछ बोलते भी हैं और देते भी हैं। (4) कुछ न बोलते हैं और न देते ही हैं।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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