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परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 451 दूसरों के प्रति शुभ विचार पुण्य है और अशुभ विचार पाप है।
पुरुषार्थ
आलसड्ढो णिरुच्छाहो फलं किंचि ण भुंजदे। थणक्खीरादियाणं वा पडरुसेण विणा ण हि।।
-गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, 890 जो व्यक्ति आलस्ययुक्त होकर उद्यम उत्साह से रहित हो जाता है, वह किसी भी फल को प्राप्त नहीं कर सकता। पुरुषार्थ से ही सफलता (सिद्धि) प्राप्त होती है, जैसे माता, बालक को स्तन का दूध भी रुदन करने पर पिलाती है।
प्रेम
जा न चलइ ता अमयं चलियं पेम्म विसं विसेसेइ।
-वज्जालग्ग, 36/7 प्रेम जब तक स्थिर रहता है, तब तक अमृत है। जब तक स्थिर नहीं रहता, चलित हो जाता है, तब विष से भी अधिक भयानक बन जाता है।
ब्रह्मचर्य
जो देइ कणय कोडिं अहवा कारेइ कणयजिणभवणं। तस्य न तत्तिय पुन्नं, जत्तिय बंभव्वए धरिए।।
___-संबोध सत्तरि, 56 यदि कोई व्यक्ति करोड़ों रुपयों के मूल्य का स्वर्ण याचकों को दान देता है अथवा स्वर्णमय जिनमंदिर का निर्माण कराता है, उसे उतना पुण्य नहीं होता, जितना ब्रह्मचर्य का पालन करने से होता है।
भाग्य
गुणहिं न संपइ कित्ति पर फललिहिआ भुंजन्ति। केसरि न लहइ बोड्डिअ विगय लक्खेहिं घेप्पन्ति।।
-प्राकृत व्याकरण, 4/335 गुणों से केवल कीर्ति मिलती है, सम्पत्ति नहीं। प्राणी भाग्य में लिखे फल को भोगते हैं। सिंह गुणसम्पन्न होने पर भी एक कौड़ी में भी नहीं बिकता जबकि हाथी लाखों (रुपयों) में खरीदा जाता है।