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________________ 450 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन या बिगड़ रहा है या साथ दे रहा है, उस भाग्य को छोड़कर धैर्यवान व्यक्ति आरम्भ किये कार्य को अवश्य पूरा करता है । निन्दा जइ इच्छह गुरुयत्तं, तिहुयण मज्झम्मि अप्पणो नियमा । सव्वपयत्तेणं, परदोसविवज्जणं ता कुह । । - गुणानुरागकुलकम्, 12 यदि तुम सर्वत्र (तीनों लोकों में) अपनी प्रशंसा और बहुमान चाहते हो तो प्रयत्नपूर्वक परनिन्दा का पूर्णरूप से त्याग कर दो । निरभिमान सयणस्य जणस्य पिओ णरो अमाणी सदा हवदि लोए । गाणं जसं च अत्यं लभदि सकज्जं च साहेदि । । - आर्हत्प्रवचन, 7/37 निरभिमानी मानव संसार में स्वजन और सामान्यजन सभी को सदा प्रिय होता है और ज्ञान, यश, धन आदि का लाभ प्राप्त करता है तथा अपने कार्य को सिद्ध कर लेता है । परोपजीवी किं पढिएणं बुद्धीए किं, व किं तस्य गुणसमूहेणं । जा पियरवि दत्तधणं, भुंज अज्जणसमत्यो वि ।। - पाइअकहासंगहो, 19 उसके पढ़ने से, बुद्धि से अथवा गुणसमूह से क्या (लाभ) ? जो कमाने में समर्थ होता हुआ भी पिता के द्वारा अर्जित धन का ही भोग करता है 1 पाप-पुण्य कम्ममसुहं कुसीलं, सुहकम्मं चावि जाण व सुसीलं । —समयसार, 145 अशुभकर्म को कुशील और शुभकर्म को सुशील (सदाचार) जानो । सुह परिणामो पुण्णं असुहो पावं ति भणिय भण्णेसु । - समयसार, 181
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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