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परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 449
धम्मोमंगलमुक्किळं, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो।
-दशवैकालिक, 1/1 धर्म उत्कृष्ट मंगल है, और अहिंसा, संयम तप उसका स्वरूप है। इस धर्म को जो हृदय में सदा धारण करता है, देवगण भी उसे नमस्कार करते हैं।
जत्थ य विसयविराओ, कसायचाओ गुणेसु अणुराओ। किरिआसु अप्पमाओ, सो धम्मो सिवहुहो लोएवाओ।।
-विकारनिरोधकुलक, 9 वही धर्म मोक्ष सुख का देने वाला है-जिसमें, (1) विषयों से विराग, (2) कषायों का त्याग, (3) गुणों से अनुराग और (4) क्रियाओं में अप्रमाद है। जीवाणं रक्खणं धम्मो।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 498 जीवों की रक्षा करना, धर्म है। धम्मो दयाविसुद्धो।
--बोधपाहुड, 25 जिसमें दया की विशुद्धता है, वही धर्म है। धम्मविहीणो सोक्खं, तण्हाछेयं जलेण जह रहिदो।
-सन्मतिप्रकरण, 1/3 जिस प्रकार मनुष्य जल के बिना प्यास नहीं बुझा सकता, उसी प्रकार धर्मविहीन मानव सुख नहीं पा सकता। धम्मसमो नत्थि निहि।
-वज्जालग्ग, 39/90-1 धर्म के समान दूसरी कोई निधि नहीं है। धैर्यवान
संघडिय घडिय विघडिय घडत विघडंत संघडिज्जंतं। अवहत्यिऊण दिव्वं करेइ धीरो सभारद्धं ।।
___-वज्जालग्ग, 9/16 जो पहले साथ था, बना था या बिगड़ गया था और अब जो बन रहा है