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452 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
भाव
मणि मंत ओसहीणं, देवाणं तह य जंत तंताणं। भावेण विणा सिद्धि, न हु दीसइ कस्स अवि लोए।।
-भावकुलक, 3 जितनी भी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, उनके मूल में भाव (भावना) होती है। जल के बिना पौधे सूख जाते हैं उसी तरह भाव के बिना सभी अनुष्ठान विफल हो जाते हैं। मणि (विविध प्रकार के रत्नों का प्रयोग), मन्त्र, औषध, देव, यन्त्र और तन्त्र का कोई भी अनुष्ठान सफल नहीं हो पाता।
मद्यपान
मज्जेव णरो अवसो, कुणेइ कम्माणि जिंदणिज्जाइं। इहलोए परलोए, अणुहवइ अणंतयं दुक्खं ।।
-वसुनंदि श्रावकाचार, 70 मद्यपान से मानव मदहोश होकर निन्दनीय कार्य करता है, फलस्वरूप उसे इस लोक और परलोक में अनन्त दुख भोगने पड़ते हैं।
मन
मणुस्सहिदयं पुणिणं गहणं दुब्बियाणकं।
-इसिभासियाई, 1/8 मनुष्य का मन बड़ा गहरा है। इसे समझ पाना कठिन है।
मनुष्य
मण्णंति जदो णिच्चं पणेण मिउणा जदो दु ये जीवो। मण उक्कडा य जम्हा ते माणुसा भणिया।।
-पंचसंग्रह, 1/62 वे मनुष्य कहे जाते हैं जो मन के द्वारा नित्य ही हेय-उपादेय (त्यागने योग्य और ग्रहण करने योग्य), तत्त्व-अतत्त्व तथा धर्म-अधर्म का विचार करते हैं, कार्य करने में निपुण हैं और उत्कृष्ट मन के धारक हैं।