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परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 447 दुःख आ जाने पर भी मन पर संयम रखना चाहिए।
दान
दाणं सोहग्गकरं दाणं अरुग्गकारणं परमं । दाणं भोगनिहाणं, दाणं ठाणं गुणगणाणं ।।
-दानकुलकम्, 3 दान सुख-सौभाग्यकारी है, परम आरोग्यकारी है, पुण्य का निधान और गुण-समूह का स्थान है। दाणं मुक्खं सावयधम्मे
-रयणसार, 11 दान देना सद्गृहस्थ का प्रमुख कर्तव्य है।
दुःख
अणिद्वत्थ समागमो इट्ठत्थ वियोगो च दुःख णाम।
-धवला, 13/5, 5, 63/334/5 अनिष्ट अर्थ का संयोग और इष्ट अर्थ का वियोग, इस का नाम दुःख है।
दुर्जन
दूरुड्डाणे पडिउ खलु अप्पणु जणु मारेइ। जिहगिरिसिंगहुँ पडिअ सिल अन्नुवि चूरू करेइ।।
-हैम. प्राकृत व्याकरण, 337 जैसे पर्वत शिखर से गिरती हुई शिला स्वयं भी चूर्ण होती है और दूसरों को भी चूर-चूर कर देती है, उसी प्रकार दुष्ट व्यक्ति स्वयं भी पतित होता हुआ दूर से ही दूसरों को भी नष्ट कर डालता है।
बीहेदव्वं णिच्चं, दुज्जणवयणा पलोट्ट जिब्भस्स। वरणयरणिग्गमं मिव, वयणकयारं वहंतस्स।।
-मूलाधार, 962 जिसकी जिह्वा सदा पलटती रहती है, उस दुर्जन के वचनों से सदा ही डरते रहना चाहिए। दुर्जन की जिला दुर्वचनों को वैसे ही निकालती रहती है, जैसे बड़े नगर का नाला कचरे को बहाता रहता है।