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446 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
लोगों के दोषों को ग्रहण मत करो, उनके विरले गुणों को भी प्रकाशित करो। क्योंकि घोंघों की प्रचुरता वाला समद्र भी लोक में रत्नाकर कहलाता है।
गुणानुराग
जइ वि चरसि तवं विउलं, पढसि सुयं करिसि विविहकट्ठाई। न धरसि गुणाणुरायं, परेसु ता निष्फलं सयलं ।
-गुणानुरागकुलक, 5 यद्यपि तुम विपुल तप करते हो, श्रुत का अध्ययन करते हो, भाँति-भाँति के कष्टों को सहन करते हो किन्तु यदि तुम दूसरों के गुणों के प्रति अनुराग नहीं करते हो तो ये सब निष्फल हैं। गुरुकुलवासी
जस्स गुरुम्मि न भत्ती न य बहुमाणो गउरवं न भयं । न वि लज्जा न वि नेहो, गुरुकुलवासेण किं तस्स।
-उपदेशमाला, 75 जिसमें गुरु के प्रति न भक्ति है न बहुमान है, न गौरव है, न भय है, न अनुशासन है, न लज्जा है और न स्नेह ही है, उसका गुरुकुल में रहने से क्या प्रयोजन है? चारित्र असुहादो, विणिवत्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं
-द्रव्यसंग्रह, 45 ' अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति ही चारित्र है। जीवन की सुगन्ध विसुद्ध भावत्तणतो य सुगन्धं
-नन्दीसूत्रचूर्णि, 2/13 पवित्र विचार ही जीवन की सुगन्ध है। तितिक्षा
दुक्खेण पुट्ठ धुवमायएज्जा।
-सूत्रकृतांग, 1/7/29