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________________ परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 445 कार्यसिद्धि सुहसाहगंपि कज्जं, करणविवहूणं णुवायसंजुत्तं । अन्नायऽदेसकाले, विवत्तिमुवजति सेहस्स।। -निशीथभाष्य, 4803 देश, काल एवं कार्य को समझे बिना, समुचित प्रयत्न व उपाय से रहित किया जाने वाला कार्य, सुख साध्य (सरलता से पूर्ण होने वाला) होने पर भी सिद्ध (सफल) नहीं होता। कुसंग दुज्जण संसग्गीए णियगं गुण खु सजणो वि। सीयलभावं उदयं जह पजहदि अग्गिजोएण। -भगवती आराधना, 344 जैसे अग्नि के सहवास से शीतल जल भी अपनी शीतलता छोड़कर गरम हो जाता है। उसी प्रकार सज्जन मनुष्य भी दुर्जन की संगति से अपना स्वाभाविक गुण छोड़ देता है। वरं अरण्णवासो अ, मा कुमित्ताण संगओ। -संबोध सत्तरि, 59 कुमित्र की संगति करने से तो वन में निवास करना अच्छा है। क्रोध सुठ्ठ वि पियो मुहुत्तेण होदि वेसो जणस्स कोधेण। णधिदो वि जसो णस्सदि कुद्धस्स अकज्जकरणेण। -आर्हत्प्रवचन, 7/35 क्रोध के कारण मनुष्य का अत्यन्त प्यारा व्यक्ति भी शत्रु बन जाता है। क्रोधी व्यक्ति के अनुचित आचरण से जगत प्रसिद्ध उसका यश भी नष्ट हो जाता है। गुण-दर्शन या दोसेच्चिय गेण्हह विरले वि गुणे पयासह जणस्स। अक्ख-पउरो वि उयही, भण्णइ रयणावरो वि लोए।। -कुवलयमाला
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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