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________________ 444 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन कामना कामा दुरतिक्कम्मा । कामनाओं (इच्छाओं) का पार पाना बहुत कठिन है । कामे कमाहि कमियं खु दुक्खं । कामनाओं का परित्याग करो, समझो - दुःख दूर हो गये । काम - भोग खमित्त सुक्खा, बहुकाय दुक्खा, पगामदुक्खा, अणिगामसुक्खा । संसार - मोक्खस्य विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा ।। है। -आचारांग, 1/2/5 - दशवैकालिक, 2/5 - उत्तराध्ययन, 14/13 कामभोग (इन्द्रिय-सुख) क्षण भर के लिए सुख देते हैं और चिरकाल तक दुःख देते हैं । ये अत्यधिक दुःख देते हैं और बहुत कम सुख देते हैं । यह संसार में मुक्त होने में बाधक हैं और अनर्थों की ख़ान हैं। सव्वगहाणं पभवो, महागहो सव्वदोसपायट्टी | कामग्गहो दुरप्पा, जेणऽभिभूअं जगं सव्वं । । - इन्द्रियपराजयशतक 25 सभी ग्रहों का मूल कारण और सभी दोषों को उत्पन्न करने वाला कामरूपी महाग्रह ऐसा अत्यन्त बलवान है, जिसने सम्पूर्ण जगत (जगत के प्राणियों) को अभिभूत कर दिया है, अपने वश में कर रखा है। कामासक्त विसयासत्तो कज्जं अकज्जं वा ण याणति । - आचारांगचूर्णि, 1/2/4 विषयों में आसक्त मनुष्य को कर्तव्य - अकर्तव्य का परिज्ञान नहीं रहता
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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