________________
परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 439
आहार-विवेक
मोक्खपसाहणहेतु, णाणादि तप्पसाहणो देहो। देहट्टण आहारो, तेण तु कालो अणुण्णातो।।
__ -निशीथभाष्य, 4159 ज्ञान आदि मोक्ष के साधन हैं और ज्ञानादि का साधन शरीर है तथा शरीर का साधन आहार है। इसलिए व्यक्ति को समय के अनुसार भोजन करना चाहिए। इन्द्रिय-दमन
जस्स खलु दुप्पणिहिआणि इंदियाइं तवं चरंतस्स ।। सो हीरइ असहीणेहिं सारही व तुरंगेहिं।।
-दशवैकालिकनियुक्ति, 298 जिस व्यक्ति की इन्द्रियां कुमार्गगामिनी हो गई हैं, वह दुष्ट घोड़ों के वश में पड़े सारथि के समान उत्पथ (कुमाग) में भटक जाता है।
गुणकारिआई धणियं, धिइरज्जुनियंतिआई तुह जीव । निययाइं इंदियाई, वल्लिनिअत्ता तुरंगुव्व।।
-इन्द्रियपराजय शतक, 94 वश में किया हुआ बलिष्ठ घोड़ा जिस प्रकार बहुत लाभदायक होता है, उसी प्रकार धर्मरूपी लगाम द्वारा वश में की हुई स्वयं अपनी इन्द्रियाँ तुझे बहुत लाभदायक होंगी। अतः इन्द्रियों को वश में करके उनका निग्रह करना चाहिए। उद्बोधन
जं कल्लं कायव्वं, णरेण अज्जेव तं वरं काई। मच्चू अकलुणहिअओ, न दीसइ आवयंतो वि।।
-बृहत्कल्पभाष्य, 4674 जो कर्तव्य कल करना है, उसे आज ही कर लेना श्रेयस्कर है। मृत्यु अत्यन्त निर्दय है, पता नहीं वह कब आ जाए।
__ मा पच्छ असाधुताभवे अच्चे ही अणुसास अप्पंग।
-सूत्रकृतांग, 1.2/3/7