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438 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
आत्मौपम्य सब्वायरमुवइत्तो, अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ।
-भक्तपरिज्ञा, 93 पूर्ण आदर और सावधानी पूर्वक आत्मौपम्य की भावना से सब जीवों पर दया करनी चाहिए।
सव्वभूयप्प भूपयस्य, सम्मं भूयाइं पासओ। पिहियासवस्स दन्तस्य पावकम्मं न बंधई।
-दशवै, 4/9 जो समस्त प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देखता है, उसे पाप कर्म का बन्धन नहीं होता है। आपत्तिकाल
अत्थमणे न छंडिज्जइ नूनं सूरो वि निययकिरणेहिं। पुरिसस्स वसणकाले देहुप्पन्ना वि विहंडति।
-गाहारयणकोष, 812 अस्त के समय सूर्य की किरणें भी सूर्य को छोड़ जाती हैं। (सच ही है) पुरुष को आपत्तिकाल में उसके आत्मज (पुत्र) भी उसे छोड़ देते हैं। आलस्य नालस्सेण समं सुक्खं
-बृहत्कल्पभाष्य, 3385 आलस्यरहित होने के समान सुख नहीं है। आहार-विचार
हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा। न ते विज्जातिगच्छन्ति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा।
-ओघनियुक्ति, 578 जो व्यक्ति हिताहारी, मिताहारी और अल्पाहारी है, उसे किसी वैद्य से चिकित्सा कराने की आवश्यकता नहीं है, वह स्वयं ही अपना वैद्य है।