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________________ परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 435 आत्म-प्रशंसा वायाए जं कहणं गुणाणं तं णासणं हवे तेसिं। होदि हु चरिदेण गुणाण कहण मुब्भावणं तेसिं। -अर्हत्प्रवचन, 9/7 वचन से अपने गुणों को कहना, उन गुणों का नाश करना है और आचरण से उन गुणों को प्रगट करना, उनका विकास करना है। अप्पपसंसं परिहरह सदा मा मोह जसविणासयरा। अप्पाणं थोवंतो तणलहुदो होदि हु जाणहिम ॥ -भगवती आराधना, 359 मानव को अपनी प्रशंसा करना सदा के लिए छोड़ देना चाहिए, क्योंकि अपने मुख से अपनी प्रशंसा करने से उसका यश नष्ट हो जायेगा। अतः जो मनुष्य अपनी प्रशंसा आप करता है, वह जगत में तृण के समान तुच्छ होता है। मा अप्पयं पसंसइ जइवि जसं इच्छसे धवलं। -कुवलयमाला यदि निर्मल यश की इच्छा है तो अपनी प्रशंसा मत करो। आत्म-विजय अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पाहु खलु दुद्दमो। अप्पादंतो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य।। -उत्तराध्ययन, 1/15 प्रत्येक व्यक्ति (प्राणी) को अपनी आत्मा (अशुभ विचार और कार्य करने वाली आत्मा) का नियन्त्रण करना चाहिए। (ऐसी अनीति प्रवृत्त) आत्मा पर नियन्त्रण करना यद्यपि कठिन है। किन्तु आत्म नियन्त्रण करने वाला आत्मविजेता मानव इस लोक और परलोक दोनों में सुखी होता है। वरं मे अप्पा दन्तो, संजमेण तवेण य। माहं परेहिं दम्मन्तो, बन्धणेहिं वहेहि य।। -उत्तराध्ययन, 1/16 अच्छा यही है कि मैं स्वयं संयम (अनुशासन) और तप के द्वारा अपनी आत्मा (अशुभ इच्छा करने वाली आत्मा) का दमन (नियन्त्रण) कर लूं अन्यथा दूसरे लोग बन्धन (दण्ड) और वध (ताड़ना, प्रतारणा, तिरस्कार) द्वारा मेरा दमन करेंगे। (यह मेरे लिए उचित नहीं होगा।)
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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